उम्र हो चली है
उम्र हो चली है शायद,
आँखे धुँधलाने लगे हैं,
तुम्हारे फोटो फ्रेम को पकड़े,
जब भी अतीत में झाँकता हूँ,
लगता है कि जिन्दगी का सिरा
कहीं छूट गया हो ।
वो सिरा, वो धागा,
जिसमे पिरोया था एक रिश्ता,
बिना गिरह का, कच्चा तागा,
जिसको खिंच-खिंच के हमने बना ली चादर,
जब चाहा बिछाया-ओढ़ा, धोया और सुखाया,
सूराख से दिखते हैं उसमे आज ।
वो सूराख, बाईस्कोप की
जिसमे झांक कर तुमने,
मुझे उसमे देखने कि ख्वाहिश की थी
और कैमरे का वो सूराख,
जिसने कैद कर दिया दोनो को एक फ्रेम मे ।
उम्र हो चली है शायद,
फ्रेम पकड़ते काँपते हैं हाथ,
और आँखो के बादल छँटते नहीं,
सिसकती बूँदो वाली,
बड़ी बर्फीली बारिश है ये,
बूंदे कँपकँपाते नही,
ढ़ेर कर जाते हैं ।
ढे़र, यादों के,
चिलचिलाती धूप और चमचमाते जुगनुओं के,
जुगनुओं की रोशनी मे दिखता चाँद,
चेहरा आपका,
और उसपे गड़ी मेरी नजर,
जो शायद डिम्पल की सिलवटों मे
छुप गईं हैं कही,
आज उन्ही सिलवटों मे,
अपनी नजर तलाशते हुए,
थकने लगा हूँ ।
उम्र हो चली है शायद !